दिवाली के मायने

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दुर्गा पूजा  की छुट्टियाँ खत्म होने क बाद बड़ी ही उत्सुकता से दिवाली का इंतज़ार हुआ करता था. यही कुछ 12-15 दिन होते हैं दोनो के बीच में. पर दिवाली का इंतज़ार साल भार में कुछ ज्यादा हुआ करता था. इसलिए नई कि दिवाली मेरा सबसे पसंदीदा त्योहार था बल्कि इसलिए कि दिवाली की   छुट्टियों के साथ ही मेरे गाँव जाने कि तैयारी शुरु हो जाती थी. कुछ ऐसा ही इंतज़ार जैसा सबको शायद गर्मी छुट्टियों का हुआ करता है और कुछ ऐसी ही उत्सुकता जैसी सबको गर्मी कि छुट्टियों में आपने दादी या नानी घर जाने की होती है. शायद इसलिए की पूरे साल भर में यही ऐसा वक्त होता था जिसमें मै अपने भाइयों और छोटी बेह्नो, चाचा- चाची, दादी और कै और लोगों को मिला करता हूँ. मेरे लिए दिवाली कभी पठाकों वाली दिवाली नई हुआ करती थी और ना आज है. कुछ इस वजह से कि घर में बाबूजी को पठाकें जलाने का कोई शौक नई हुआ करता था और किसी बड़े के ना जलाने से मुझे भी जलाने का  कभी  कोई जोश नई चढ़ा और कुछ इस वजह से की मैं थोड़ा डरता भी हूँ उनकी रस्सियों को मोमबत्ती से जलाने के वक्त कहीं रस्सी झट से ना जाल जाएँ और पठाकें मेरे भागने के पहले वहीं फट जाए. खैर वजह जो भी हो, दिवाली कि उत्सुकता मुझे दूसरों की बाल्कनियों पर लगे हुए चाइनीज बल्ब देखने कि होती थी और ये देखने कि कौन आज भी दीयों से ही घर सजता है. किसके दीए इतनी हवा में भी रोशन कर रहें हैं. फिर हम भी लग जाते थे अपनी कलाकारी दिखाने में. ऐसे की जैसे दीवाली बस इतनी ही भर हैं. खाने पीने से तो उस वक़्त मतलब ही नई होता था. बस धुन सवार होती थी दियों को जलाने की और उन्हें ना बुझने देने की. खुशी मिलती थी दियों की दीपावली से.

 

बातों-बातों में ये बताना ही भूल गया की हम दीवाली पर घर कभी-कभी ही जाया करते थे. घर जाने का कार्यक्रम तो छठ में बनता था. यह एक कार्यक्रम ऐसा होता था जिसे कोई टाल नई सकता था. छठ हमारे घर का सबसे इंपॉर्टेंट त्योहार है. गाँव का वातावरण ही अलग सा होता था. पूरा टोला एक सा लगता था. और एक सी होती थी पूजा की तैयारी. घाट बनाना, राशन के सामान लाना, सूप सजाना, खेत दौर-दौर कर ज़रूरी सामान इकहट्टा करना और बाक़ायदा घाट को रंग बिरंगी काग़ज़ों से घेरना ताकि अगल-बगल वालों में से कोई ये ना कह सके की उनकी घाट सबसे अच्छी दिखती है. कुछ अलग सा महसूस होता है उन दिनों. बातें तो बहुत सी है करने को पर शायद ही किसी को इंटेरेस्ट हो मेरी बातें सुन ने में.

 

सो पते की बात सिर्फ़ इतनी सी है कि आज और कल में हम सिर्फ़ बड़े हो गयें हैं, पर मायने आज भी हम वही ढूँढते हैं. और अगर किसी ने गौर किया होगा तो महसूस किया होगा की हम कभी भी त्योहार मनाने की वजह की वजह से उतने प्रभावित नई होते हैं जितना उन्हें किसी और वजह से ज़ोरकर. मसलन मेरा गाँव जाना और वहाँ की दुनियाँ में कुछ खो सा जाना.